Monday 2 March 2015

भ्रष्टाचार

इस देश में भ्रष्टाचार बढ़ गया है भयावह स्तर तक,
फैल गया है यह, सुविस्तारित वट वृक्ष सा।
बढ़ कर इसकी जटायें मिल गयी हैं जड़ों से-
और समा गई हैं गहरे, मानस मन की भूमि में।
भ्रष्टाचार का यह अकेला ही वृक्ष अब हो गया है सघन वन-
और बन गया है अभयारण्य, अनाचारियों का दुराचारियों का।
इसकी सघनता और हरित अंधकार में अपराधी सहज ही-
छिपा लेते है अपने आपको,
अपने कदाचारानुसार पापिष्ट ढूंढ लेते है अपने लिए आश्रय।
कुछ छिप जाते हैं इसके कोटरों में, चिपक जाते हैं कुछ इसकी जड़ों से-
कीड़े मकोड़ों से,
कुछ दिनांध उलूक से बैठ कर इसकी शाखों पर बिता देते हैं अपना निर्वासन-
और कुछ उल्टे लटक जाते हैं चमगादड़ों की तरह।
कुछ चयनित और निर्वाचितों को इसकी हरीतिमा करती है बहुत आकर्षित।
वे स्वत: ही खिचे चले आते हैं इसकी ओर बोधिसत्व पाने को।
अधिक धन प्राप्ति का मार्ग तलाशना ही है उनका बोधिसत्व
समझ नहीं आता कैसे हो पायेगा इस भ्रष्टाचार के वृक्ष का-
समूल नाश ?
कैसे पूरी हो पायेगी परिकल्पना-
भ्रष्टाचार मुक्त समाज के निर्माण की।
जयन्ती प्रसाद शर्मा