जहाँ तुम थे वहाँ मैं भी था,
किसी पुस्तक सी प्रस्तावना सा।
तमाम किन्तु परन्तुओं के बीच,
स्वीकार्यता की सम्भावना सा।
उन मान्यनीयों के बीच,
मैं था जैसे दुर्गंधमय कीच।
मैं सहता रहा वाग्वाण,
धनहीन की अवमानना सा।
वहाँ नहीं थी मेरी कोई वकत,
कारण था मेरी निर्धनता फ़क़त।
फिर भी मैं रहा वहाँ,
अपनों की शुभकामना सा।
सब थे अपने आप में मस्त,
सभी थे दुर्भावना के अभ्यस्त।
मैं बना रहा सहद्यों में,
‘सर्वेभवन्तु सुखिन' की कामना सा।
जयन्ती प्रसाद शर्मा